कोटिहु बदन नहिं बन बरनत, जग-जननी-सोभा महा !
सकुचहिं कहत स्तुति सेष सारद, मन्द मति तुलसी कहा !!
छबि-खानि मातु भवानि गवनी, मध्य मंडप सिव जहाँ !
अवलोकि सकइ न सकुच पति-पद-कमल मन मधुकर तहाँ !!
जगतजननी की शोभा बखानी नहीँ जा सकती, जब सरस्वती, वेद और शेष कहते हुए सकुचाते हैं तो तुलसीदास कैसे उनकी शोभा वर्णन कर सकते हैं ! छवि की खान पार्वती जी मन्डप में जहाँ शिव जी हैं वहाँ गईं ! लज्जा से पति के चरण कमलों को देख नहीँ सकती, परन्तु मन रूप भ्रमर वहाँ क्षुब्ध हो गया है !
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