दो :- रजत सीप महँ भास् जिमि, जंथा भानु-कर-बारि !
जदपि मृषा तिहुँ काल सो, भ्रम न सकइ कोउ टारि !!
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई, जदपि असत्य देत दुःख अहिइ !
जौं सपने सिर काटइ कोई, बिनु जगे न दूर दुःख होई !!
जैसे सींप में चाँदी और सूर्य की किरणों में पानी भ्रम है और उस भ्रम को कोई मिटा नहीं सकता !
इसी तरह संसार भी भगवान सहारे व्यवस्तिथ है, यदि सपनें में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता है !
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